रावण था भगवान विष्णु का द्वारपाल


रावण अपने पूर्व जन्म में भगवान विष्णु के द्वारपाल थे। एक शाप के कारण उसे राक्षस योनि भोगना पड़ी। मुक्ति भी भगवान विष्णु के हाथों ही मिली।


एक पौराणिक कथा के अनुसार जय और विजय नाम के दो द्वारपाल बैकुंठ के द्वार पर पहरेदारी किया करते थे। एक दिन भगवान विष्णु के दर्शनों के लिए सनक, सनंदन आदि ऋषि बैकुंठ आये। तब द्वारपाल जय और विजय ने उन्हें प्रवेश से रोक दिया। क्रोधवश ऋषियों ने दोनों को राक्षस होने का शाप दे दिया। तब जय-विजय ने क्षमा याचना की। तब भगवान विष्णु के कहने पर ऋषियों ने शाप के प्रभाव को बदलते हुए अगले तीन जन्मों तक ही राक्षस योनि में रहने का शाप दिया। साथ ही यह भी कहा कि शाप से मुक्ति तभी होगी जब भगवान विष्णु का कोई अवतार तुम्हारा वध करें।


तत्पश्चात जय और विजय अगले जन्म में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु राक्षस के रूप में जन्मे। हिरण्याक्ष राक्षस बहुत शक्तिशाली था। पूरी पृथ्वी को पाताल लोक भेजने लगा। तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर राक्षस हिरण्याक्ष का वध किया और पृथ्वी की रक्षा की। इसके बाद हिरण्यकशिपु के अत्याचार से तीनों लोक हाहाकार करने लगे। हिरण्यकशिपु के अनोखे वरदान के कारण भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार धारण किया। इस अवतार के रूप में हिरण्यकशिपु का वध किया।


अगले अवतार में दोनों द्वारपाल ने त्रेतायुग में रावण और कुम्भकर्ण के रूप में जन्म लिया। इस जन्म में कुम्भकर्ण भले ही नींद में रहा हो, परंतु रावण ने अपने अत्याचार से तीनों लोक को परेशान कर रखा था। ऋषि मुनियों के यज्ञ में बाधाएं डाली। त्रेतायुग में भगवान विष्णु में साधारण मानव के रूप में जन्म लिया और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रूप में रावण और कुम्भकर्ण का वध किया। रावण के इस जन्म की विशेषता यह थी कि वह इस जन्म में प्रकाण्ड विद्वान भी था। इसी जन्म में रावण परम् शिवभक्त भी कहलाया।


तीसरे जन्म में जय-विजय ने द्वापर युग में शिशुपाल और दन्तवक्त्र के रूप में जन्म लिया। इस जन्म में भगवान विष्णु ने कृष्ण के रूप में जन्म लेकर दोनों का वध किया। इस प्रकार भगवान विष्णु ने अपने द्वारपाल जय और विजय को तीन बार जन्म लेकर राक्षस योनि से मुक्ति दिलाई।