भगवान परशुराम के प्रादुर्भाव का पावन पर्व अक्षय तृतीया


भगवान परशुराम के संदर्भ में रामायण, महाभारत, भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में वर्णन मिलता है। वे वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे तथा भार्गव गोत्र की आज्ञाकारी संतान थे। सदा अपने गुरुजनों, माता-पिता की आज्ञा का पालन करते थे। सदा बड़ों का सम्मान एवं सृष्टि को प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना चाहते थे।
त्रेतायुग (रामायण काल) में एवं भार्गव गोत्र के ब्राह्मण ऋषि के यहाँ जन्मे थे तथा भगवान विष्णु के छटे अवतार (आवेशवतार) भी माने गये हैं। इनका जन्म भार्गव (भृगुश्रेष्ठ महर्षि) गोत्र के जमदग्नि द्वारा संपन्न पुत्रेष्टि यज्ञ करने से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान से पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को ग्राम मानपुर के जानापाव के पर्वत जो म.प्र. के इंदौर जिला में हुआ था। (जन्म स्थान के संबंध में और भी कुछ विद्वानों के मत अलग-अलग है)।
पितामह भृगु द्वारा नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य एवं शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु (फरसा) धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे, उनसे बाते करते थे, खूंखार जानवर भी उनके स्पर्श मात्र से उनके अपने हो जाते थे।
प्राचीन काल में कन्नौज में गाधि नाम के राजा थे। उनकी अत्यन्त ही रूपमती कन्या जिसका नाम सत्यवती था राजा ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषि के साथ कर दिया। विवाहोपरांत भृगु ऋषि ने आकर पुत्रवधू आशीर्वाद दिया तथा वर मांगने को कहा। तब सत्यवती ने अपने ससुर की आज्ञानुसार उनसे अपनी माता के लिए एक पुत्र की याचना की। तब भृगु ऋषि ने दो चरू पात्र दिया और कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हों। तब अपनी माँ को पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करने को कहना और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिए गये चारूओं का सावधानी के साथ पृथक-पृथक से सेवन कर लेना।
उधर सत्यवती की माँ ने देखा भृगु ऋषि ने अपने पुत्रवधू को उत्तम संतान होने का चरू दिया है, तब उसकी माँ ने अपने चरू को अपनी पुत्री (सत्यवती) के चरू से बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरू का सेवन कर लिया।
योग शक्ति से भृगु को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपने पुत्रवधू के पास आकर बोले— पुत्री तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरू का सेवन कर लिया, इसलिए अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी। इस पर सत्यवती ने आग्रह किया कि आप ऐसा आशीर्वाद दे कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे। भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। तब भृगु ने प्रसन्न होकर आग्रह को स्वीकार कर लिया।
समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसनजित की कन्या रेणुका से हुआ, रेणुका से पांच पुत्र हुये जिसमें परशुराम थे माता-पिता, गुरुजनों के भक्त अन्याय के प्रति प्रतिशोध (सहस्त्रार्जुन एवं उनके पुत्रों का) महर्षि ऋचीक ने परशुराम को समझाया। तब अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी, महर्षि कश्यप को दान कर दी और देवराज इन्द्र के सामने अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर अपना आश्रय बनाकर रहने लगे।
रामयण काल, महाभारत काल में वे शस्त्र विद्या के महागुरु थे। भीष्म, द्रोण, कौरव-पाण्डवों गुरु व कर्ण को शस्त्र विद्या सिखाया। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उनके द्वारा बसाये गये हैं, जिसमें कोंकण, गोआ एवं केरल हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान परशुराम ने तीर चलाकर गुजरात से लेकर केरल तक समुद्र को पीछे धकेलते हुए नई भूमि का निर्माण किया। इस कारण कोकण, गोवा एवं केरल में भगवान परशुराम पूजनीय एवं वंदनीय है।
एक दन्त की कथाएँ
कैलाश में भगवान शंकर के अन्त:पुर में पहुंचने के समय गणेश जी द्वारा रोके जाने पर परशुराम ने बलपूर्वकर अन्दर प्रवेश करने को चेष्ठा की। तब गणपति जी ने उन्हें गुस्से में आकर अपनी सूंड में लपेटकर संपूर्ण लोकों का भ्रमण कराते हुए गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कराके भूतल में पटक दिया। चेतना अवस्था (होश में) आने पर गुस्से में परशुराम जी द्वारा किये गये फरसे के प्रहार से गणेश जी का एक दांत टूट गया। तभी से भगवान गणेश एक दन्त कहलाने लगे।
अत: भगवान परशुराम जी के प्रादुर्भाव (प्रकटोत्सव) का शुभ पावन अवसर अक्षय तृतीया के दिन इनकी पूजा अर्चना से मनुष्य को साहस, पराक्रम, पुरुषार्थ एवं अन्याय के प्रति अपने / विरोध जताने एवं भय मुक्त रहन, न्याय प्रियता, कर्त्तव्यनिष्ठता, वैदिक परम्पराओं के प्रति आस्था की अनुभूति एवं विश्वास के प्रति हम सब की मन: स्थिति सुदृण होती है तथा हम सबको संस्कारित रहने के लिए एवं अपने मानवीय जीवन के मूल्यों का संरक्षण करने की शक्ति प्राप्त होती है।
इच्छितफलप्रदाता परशुराम गायत्री
ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि तन्नो परशुराम: प्रचोदयात्।।
आज के इस पावन पुनीत दिवस को भगवान विष्णु जी के पूजन पद्धति विधि-विधान के अनुसार पूजन-अर्चन करके चिरन्जीवी भगवान परशुराम जी का अशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। वर्त्तमान में कोरोना वायरस के संकट से निपटने के लिए घर पर रहे सोशल डिस्टेंसिग का पालन करें। आयुष मंत्रालय के गाईड लाईन के अनुसार शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ायें। संक्रमण की चैन को तोड़ने में अपना महत्वपूर्ण योगदान समाज को देने का कष्ट करें।
सभी सुखी हो सभी निरोगी हों।


-डॉ. ओ.पी. द्विवेदी 'मिस्टर'
एम.डी.पीएच.डी.
प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष
शा.आयु.महा. रीवा म.प्र.